लम्स-ए-आख़िरी

न रोओ जब्र का आदी हूँ मुझ पे रहम करो

तुम्हें क़सम मिरी वारफ़्ता ज़िंदगी की क़सम

न रोओ बाल बिखेरो न तुम ख़ुदा के लिए

अँधेरी रात में जुगनू की रौशनी की क़सम

मैं कह रहा हूँ न रोओ कि मुझ को होश नहीं

यही तो ख़ौफ़ है आँसू मुझे बहा देंगे

मैं जानता हूँ कि ये सैल भी शरारे हैं

मिरी हयात की हर आरज़ू जला देंगे

न इतना रोओ ये क़िंदील बुझ न जाए कहीं

इसे ख़ुद अपना लहू दे के मैं जलाता हूँ

जो हम ने मिल के उठाए थे वो महल बैठे

अब अपने हाथ से मिट्टी का घर बनाता हूँ

तुम्हारे वास्ते शबनम निचोड़ सकता हूँ

ज़र ओ जवाहिर ओ गौहर कहाँ से लाऊँ मैं

तुम्हारे हुस्न को अशआर में सजा दूँगा

तुम्हारे वास्ते ज़ेवर कहाँ से लाऊँ मैं

हसीन मेज़ सुबुक जाम क़ीमती फ़ानूस

मुझे ये शक है मैं कुछ भी तो दे नहीं सकता

ग़ुलाम और ये शाएर का जज़्बा-ए-आज़ाद

मैं अपने सर पे ये एहसान ले नहीं सकता

मुझे यक़ीन है तुम मुझ को मुआफ़ कर दोगी

कि हम ने साथ जलाए थे ज़िंदगी के कँवल

अब इस को क्या करूँ दुश्मन की जीत हो जाए

हमारे सर पे बरस जाए यास का बादल

न रोओ देखो मिरी साँस थरथराती है

क़रीब आओ मैं आँसू तो पोंछ कर देखूँ

सुनो तो सोई हुई ज़िंदगी भी चीख़ उट्ठे

क़रीब आओ वही बात कान में कह दूँ

न रोओ मेरी सियह-बख़्तियों पे मत रोओ

तुम्हें क़सम मिरी आशुफ़्ता-ख़ातिरी की क़सम

मिटा दो आरिज़-ए-ताबाँ के बद-नुमा धब्बे

तुम्हारे होंटों पे उस लम्स-ए-आख़िरी की क़सम

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