कुछ तो तन्हाई की रातों में सहारा होता
तुम न होते न सही ज़िक्र तुम्हारा होता
Allama Iqbal
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मुझे है ए'तिबार-ए-वादा लेकिन
ऐ इश्क़ कहीं ले चल
काम आ सकीं न अपनी वफ़ाएँ तो क्या करें
तमन्नाओं को ज़िंदा आरज़ूओं को जवाँ कर लूँ
हर एक जल्वा-ए-रंगीं मिरी निगाह में है
मुझे दोनों जहाँ में एक वो मिल जाएँ गर 'अख़्तर'
न भूल कर भी तमन्ना-ए-रंग-ओ-बू करते
वक़्त की क़द्र
हमारे हाथ में कब साग़र-ए-शराब नहीं
अँगूठी
मिरी शाम-ए-ग़म को वो बहला रहे हैं
वो कभी मिल जाएँ तो क्या कीजिए