लॉन्ड्री खोली थी उस के इश्क़ में
पर वो कपड़े हम से धुलवाता नहीं
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बरखा-रुत
झूम कर बदली उठी और छा गई
सू-ए-कलकत्ता जो हम ब-दिल-ए-दीवाना चले
ऐ दिल वो आशिक़ी के फ़साने किधर गए
अगर वो अपने हसीन चेहरे को भूल कर बे-नक़ाब कर दे
चमन में रहने वालों से तो हम सहरा-नशीं अच्छे
मिरी शाम-ए-ग़म को वो बहला रहे हैं
बस्ती की लड़कियों के नाम
उठते नहीं हैं अब तो दुआ के लिए भी हाथ
अब तो मिलिए बस लड़ाई हो चुकी
रात भर उन का तसव्वुर दिल को तड़पाता रहा
ओ देस से आने वाले बता