मिरी निगाह की वुसअत भी इस में शामिल कर
मिरी ज़मीन पे तेरा ये आसमाँ कम है
Mir Taqi Mir
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Allama Iqbal
Habib Jalib
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सारी ख़िल्क़त एक तरफ़ थी और दिवाना एक तरफ़
वो जिस का अक्स लहू को जगा दिया करता
मैं तो इस वास्ते चुप हूँ कि तमाशा न बने
ख़्वाहिश-ए-जादा-ए-राहत से निकलता कैसे
हिसार-ए-क़र्या-ए-खूँबार से निकलते हुए
उस की चाह में नाम नहीं आने वाला
अभी सफ़र में कोई मोड़ ही नहीं आया
पड़े थे हम भी जहाँ रौशनी में बिखरे हुए
सितारा ले गया है मेरा आसमान से कौन
उस के नज़दीक ग़म-ए-तर्क-ए-वफ़ा कुछ भी नहीं
ज़रा सी देर थी बस इक दिया जलाना था