दर्द का फिर मज़ा है जब 'अख़्तर'
दर्द ख़ुद चारासाज़ हो जाए
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दर्द बढ़ कर दवा न हो जाए
मेरे सुकून-ए-क़ल्ब को ले कर चले गए
मुझे आँखें दिखाएगी भला क्या गर्दिश-ए-दौराँ
मआल-ए-ज़ब्त-ए-पैहम हो गई है
हमें दुनिया में अपने ग़म से मतलब
वो तअल्लुक़ है तिरे ग़म से कि अल्लाह अल्लाह
ये और बात कि इक़रार कर सकें न कभी
मेरी बेताबियों से घबरा कर
वो क्या गए पयाम-ए-सफ़र दे गए मुझे
शरीक-ए-हाल-ए-दिल-ए-बे-क़रार आज भी है