ये और बात कि इक़रार कर सकें न कभी
मिरी वफ़ा का मगर उन को ए'तिबार तो है
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दर्द बढ़ कर दवा न हो जाए
मआल-ए-ज़ब्त-ए-पैहम हो गई है
मेरी बेताबियों से घबरा कर
मोहब्बत का रग-ओ-पै में मिरी रूह-ए-रवाँ होना
वो तअल्लुक़ है तिरे ग़म से कि अल्लाह अल्लाह
तू अगर दिल-नवाज़ हो जाए
दर्द का फिर मज़ा है जब 'अख़्तर'
मेरे सुकून-ए-क़ल्ब को ले कर चले गए
शरीक-ए-हाल-ए-दिल-ए-बे-क़रार आज भी है
मुझे तो कल भी न था उन पर इख़्तियार कोई
निगाह-ए-लुत्फ़ क्या कम हो गई है