हम हवा से बचा रहे थे जिन्हें
उन चराग़ों से जल गए शायद
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ख़िज़ाँ की ज़र्द सी रंगत बदल भी सकती है
ये किस मुहिम पर चले थे हम जिस में रास्ते पुर-ख़तर न आए
मौसम-ए-गुल पर ख़िज़ाँ का ज़ोर चल जाता है क्यूँ
ज़िंदा रहने की ये तरकीब निकाली मैं ने
अजब सी कशमकश तमाम उम्र साथ साथ थी
आज फिर
अँधेरी शब का ये ख़्वाब-मंज़र मुझे उजालों से भर रहा है
पुकारते पुकारते सदा ही और हो गई
सारे मौसम बदल गए शायद
बगूला बन के नाचता हुआ ये तन गुज़र गया
अजनबी सा इक सितारा हूँ मैं सय्यारों के बीच