एक तहरीर जो उस के हाथों की थी
बात वो मुझ से करती रही रात भर
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लाई है किस मक़ाम पे ये ज़िंदगी मुझे
ग़म से मंसूब करूँ दर्द का रिश्ता दे दूँ
काटी है ग़म की रात बड़े एहतिराम से
हम ने देखा है ज़माने का बदलना लेकिन
आज जलती हुई हर शम्अ बुझा दी जाए
उस शजर के साए में बैठा हूँ मैं
बन रहे हैं सतह-ए-दिल पर दाएरे
अब छलकते हुए साग़र नहीं देखे जाते
मुस्तहिक़ वो लज़्ज़त-ए-ग़म का नहीं
नशेमन ही के लुट जाने का ग़म होता तो क्या ग़म था