लाई है किस मक़ाम पे ये ज़िंदगी मुझे
महसूस हो रही है ख़ुद अपनी कमी मुझे
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हम ने देखा है ज़माने का बदलना लेकिन
तुम जो आओगे तो मौसम दूसरा हो जाएगा
मुस्तहिक़ वो लज़्ज़त-ए-ग़म का नहीं
ग़म से मंसूब करूँ दर्द का रिश्ता दे दूँ
फ़रेब-ए-निकहत-ओ-गुलज़ार से बचाओ मुझे
आज जलती हुई हर शम्अ बुझा दी जाए
एक खिड़की गली की खुली रात भर
आँधियों का काम चलना है ग़रज़ इस से नहीं
बन रहे हैं सतह-ए-दिल पर दाएरे
अब छलकते हुए साग़र नहीं देखे जाते