क्या इसी वास्ते सींचा था लहू से अपने
जब सँवर जाए चमन आग लगा दी जाए
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आँधियों का काम चलना है ग़रज़ इस से नहीं
बन रहे हैं सतह-ए-दिल पर दाएरे
हम ने देखा है ज़माने का बदलना लेकिन
फ़रेब-ए-निकहत-ओ-गुलज़ार से बचाओ मुझे
रोके से कहीं हादसा-ए-वक़्त रुका है
उस शजर के साए में बैठा हूँ मैं
अब छलकते हुए साग़र नहीं देखे जाते
नशेमन ही के लुट जाने का ग़म होता तो क्या ग़म था
एक तहरीर जो उस के हाथों की थी
ग़म से मंसूब करूँ दर्द का रिश्ता दे दूँ
फिरता हूँ अपना नक़्श-ए-क़दम ढूँडता हुआ