फिरता हूँ अपना नक़्श-ए-क़दम ढूँडता हुआ
ले कर चराग़ हाथ में वो भी बुझा हुआ
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हमारी आँख ने देखे हैं ऐसे मंज़र भी
एक खिड़की गली की खुली रात भर
लाई है किस मक़ाम पे ये ज़िंदगी मुझे
एक तहरीर जो उस के हाथों की थी
नशेमन ही के लुट जाने का ग़म होता तो क्या ग़म था
रोके से कहीं हादसा-ए-वक़्त रुका है
किनारों से मुझे ऐ ना-ख़ुदाओ दूर ही रक्खो
तुम जो आओगे तो मौसम दूसरा हो जाएगा
ये ख़ून रंग-ए-चमन में बदल भी सकता है
फ़रेब-ए-निकहत-ओ-गुलज़ार से बचाओ मुझे
क्या इसी वास्ते सींचा था लहू से अपने