ये ख़ून रंग-ए-चमन में बदल भी सकता है
ज़रा ठहर कि बदल जाएँगे ये मंज़र भी
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क्या इसी वास्ते सींचा था लहू से अपने
तुम जो आओगे तो मौसम दूसरा हो जाएगा
एक तहरीर जो उस के हाथों की थी
ग़म से मंसूब करूँ दर्द का रिश्ता दे दूँ
फ़रेब-ए-निकहत-ओ-गुलज़ार से बचाओ मुझे
अब छलकते हुए साग़र नहीं देखे जाते
फिरता हूँ अपना नक़्श-ए-क़दम ढूँडता हुआ
आँधियों का काम चलना है ग़रज़ इस से नहीं
रोके से कहीं हादसा-ए-वक़्त रुका है
हमारी आँख ने देखे हैं ऐसे मंज़र भी
नशेमन ही के लुट जाने का ग़म होता तो क्या ग़म था