रोके से कहीं हादसा-ए-वक़्त रुका है
शोलों से बचा शहर तो शबनम से जला है
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बन रहे हैं सतह-ए-दिल पर दाएरे
लाई है किस मक़ाम पे ये ज़िंदगी मुझे
ये ख़ून रंग-ए-चमन में बदल भी सकता है
अब छलकते हुए साग़र नहीं देखे जाते
दूर तक दिल में दिखाई नहीं देता कोई
किनारों से मुझे ऐ ना-ख़ुदाओ दूर ही रक्खो
काटी है ग़म की रात बड़े एहतिराम से
क्या इसी वास्ते सींचा था लहू से अपने
हमारी आँख ने देखे हैं ऐसे मंज़र भी
नशेमन ही के लुट जाने का ग़म होता तो क्या ग़म था