काटी है ग़म की रात बड़े एहतिराम से
अक्सर बुझा दिया है चराग़ों को शाम से
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बन रहे हैं सतह-ए-दिल पर दाएरे
हमारी आँख ने देखे हैं ऐसे मंज़र भी
मुस्तहिक़ वो लज़्ज़त-ए-ग़म का नहीं
फ़रेब-ए-निकहत-ओ-गुलज़ार से बचाओ मुझे
रोके से कहीं हादसा-ए-वक़्त रुका है
अब छलकते हुए साग़र नहीं देखे जाते
ग़म से मंसूब करूँ दर्द का रिश्ता दे दूँ
क्या इसी वास्ते सींचा था लहू से अपने
एक खिड़की गली की खुली रात भर
तुम जो आओगे तो मौसम दूसरा हो जाएगा
दूर तक दिल में दिखाई नहीं देता कोई