हम ने देखा है ज़माने का बदलना लेकिन
उन के बदले हुए तेवर नहीं देखे जाते
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ग़म से मंसूब करूँ दर्द का रिश्ता दे दूँ
दूर तक दिल में दिखाई नहीं देता कोई
काटी है ग़म की रात बड़े एहतिराम से
फिरता हूँ अपना नक़्श-ए-क़दम ढूँडता हुआ
क्या इसी वास्ते सींचा था लहू से अपने
अब छलकते हुए साग़र नहीं देखे जाते
एक खिड़की गली की खुली रात भर
तुम जो आओगे तो मौसम दूसरा हो जाएगा
आज जलती हुई हर शम्अ बुझा दी जाए
रोके से कहीं हादसा-ए-वक़्त रुका है
फ़रेब-ए-निकहत-ओ-गुलज़ार से बचाओ मुझे