दूर तक दिल में दिखाई नहीं देता कोई
ऐसे वीराने में अब किस को सदा दी जाए
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ग़म से मंसूब करूँ दर्द का रिश्ता दे दूँ
क्या इसी वास्ते सींचा था लहू से अपने
मुस्तहिक़ वो लज़्ज़त-ए-ग़म का नहीं
काटी है ग़म की रात बड़े एहतिराम से
रोके से कहीं हादसा-ए-वक़्त रुका है
अब छलकते हुए साग़र नहीं देखे जाते
उस शजर के साए में बैठा हूँ मैं
फ़रेब-ए-निकहत-ओ-गुलज़ार से बचाओ मुझे
लाई है किस मक़ाम पे ये ज़िंदगी मुझे
ये ख़ून रंग-ए-चमन में बदल भी सकता है
हम ने देखा है ज़माने का बदलना लेकिन