ग़म से मंसूब करूँ दर्द का रिश्ता दे दूँ
ज़िंदगी आ तुझे जीने का सलीक़ा दे दूँ
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एक खिड़की गली की खुली रात भर
आँधियों का काम चलना है ग़रज़ इस से नहीं
बन रहे हैं सतह-ए-दिल पर दाएरे
लाई है किस मक़ाम पे ये ज़िंदगी मुझे
काटी है ग़म की रात बड़े एहतिराम से
क्या इसी वास्ते सींचा था लहू से अपने
मुस्तहिक़ वो लज़्ज़त-ए-ग़म का नहीं
ये ख़ून रंग-ए-चमन में बदल भी सकता है
किनारों से मुझे ऐ ना-ख़ुदाओ दूर ही रक्खो
रोके से कहीं हादसा-ए-वक़्त रुका है
अब छलकते हुए साग़र नहीं देखे जाते