धूप फैली तो कहा दीवार ने झुक कर मुझे
मिल गले मेरे मुसाफ़िर, मेरे साए के हबीब
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सर्द रातों की हवा में उड़ते पत्तों के मसील
हरीम-ए-दिल, कि सर-ब-सर जो रौशनी से भर गया
क़ैद-ख़ाने की हवा में शोर है आलाम का
ज़र्द फूलों में बसा ख़्वाब में रहने वाला
लुहार जानता नहीं
किसी का साया रह गया गली के ऐन मोड़ पर
मिरे चराग़ बुझ गए
सुर्मा हो या तारा
बाद-ए-सहरा को रह-ए-शहर पे डाला किस ने
घंटियाँ बजने से पहले शाम होने के क़रीब
बस्तियों वाले तो ख़ुद ओढ़ के पत्ते, सोए
फ़ाख़ताएँ बोलती हैं बाजरों के देस में