किसी का साया रह गया गली के ऐन मोड़ पर
उसी हबीब साए से बनी हमारी दास्ताँ
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सफ़ीर-ए-लैला-2
हरीम-ए-दिल, कि सर-ब-सर जो रौशनी से भर गया
ज़र्द फूलों में बसा ख़्वाब में रहने वाला
अज़ल के क़िस्सा-गो ने दिल की जो उतारी दास्ताँ
रह-ज़नी ख़ूब नहीं ख़्वाजा-सराओं के लिए
मुख़्तसर बात थी, फैली क्यूँ सबा की मानिंद
कोई न रस्ता नाप सका है, रेत पे चलने वालों का
हवा के तख़्त पर अगर तमाम उम्र तू रहा
अम्न-क़रियों की शफ़क़-फ़ाम सुनहरी चिड़ियाँ
रो चले चश्म से गिर्या की रियाज़त कर के
सफ़ीर-ए-लैला-3