भरी बज़्म में राज़ की बात कह दी
बड़ा बे-अदब हूँ सज़ा चाहता हूँ
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ख़ुदी की शोख़ी ओ तुंदी में किब्र-ओ-नाज़ नहीं
पुराने हैं ये सितारे फ़लक भी फ़र्सूदा
मिर्ज़ा 'ग़ालिब'
फ़ितरत ने न बख़्शा मुझे अंदेशा-ए-चालाक
हैं उक़्दा-कुशा ये ख़ार-ए-सहरा
जिन्हें मैं ढूँढता था आसमानों में ज़मीनों में
की हक़ से फ़रिश्तों ने 'इक़बाल' की ग़म्माज़ी
मन की दौलत हाथ आती है तो फिर जाती नहीं
दिल से जो बात निकलती है असर रखती है
अपनी जौलाँ-गाह ज़ेर-ए-आसमाँ समझा था मैं
निगह उलझी हुई रंग-ओ-बू में
ज़ौक़ ओ शौक़