बोसा आँखों का जो माँगा तो वो हँस कर बोले
देख लो दूर से खाने के ये बादाम नहीं
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साँवले तन पे क़बा है जो तिरे भारी है
ख़ाना-ए-ज़ंजीर का पाबंद रहता हूँ सदा
गिर पड़े दाँत हुए मू-ए-सर ऐ यार सफ़ेद
रूह को राह-ए-अदम में मिरा तन याद आया
सुब्ह-ए-विसाल-ए-ज़ीस्त का नक़्शा बदल गया
आग़ोश में जो जल्वागर इक नाज़नीं हुआ
हैं जल्वा-ए-तन से दर-ओ-दीवार बसंती
बानी-ए-जौर-ओ-जफ़ा हैं सितम-ईजाद हैं सब
रवाँ दवाँ नहीं याँ अश्क चश्म-ए-तर की तरह
भूला हूँ मैं आलम को सरशार इसे कहते हैं
किस तरह 'अमानत' न रहूँ ग़म से मैं दिल-गीर
ज़मज़मा किस की ज़बाँ पर ब-दिल-ए-शाद आया