इक शफ़्फ़ाफ़ तबीअत वाला सहराई
शहर में रह कर किस दर्जा चालाक हुआ
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उस ने हर ज़र्रे को तिलिस्म-आबाद किया
रोज़ हम जलती हुई रेत पे चलते ही न थे
क्यूँ न हों शाद कि हम राहगुज़र में हैं अभी
चेहरों पे ज़र-पोश अंधेरे फैले हैं
हम ख़्वाब-ज़दा
गुलाब था न कँवल फिर बदन वो कैसा था
मिरे चेहरे पे जो आँसू गिरा था
बुरीदा बाज़ुओं में वो परिंद लाला-बार था
जलते हुए जंगल से गुज़रना था हमें भी
हँसते हुए चेहरे में कोई शाम छुपी थी
मुझे ख़बर है मुझे यक़ीं है