चेहरों पे ज़र-पोश अंधेरे फैले हैं
अब जीने के ढंग बड़े ही महँगे हैं
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धनक
एक सन्नाटा बिछा है इस जहाँ में हर तरफ़
इम्बिसात-ए-अज़ली
हर लम्हा सैराबी की अर्ज़ानी है
दरवाज़ा वा कर के रोज़ निकलता था
जान देने का हुनर हर शख़्स को आता नहीं
आम के पेड़ों के सारे फल सुनहरे हो गए
हर फूल पे उस शख़्स को पत्थर थे चलाने
जलते हुए जंगल से गुज़रना था हमें भी
वो लम्हा मुझ को शश्दर कर गया था
इक शफ़्फ़ाफ़ तबीअत वाला सहराई
हम पी भी गए और सलामत भी हैं 'अम्बर'