एक साहिर कभी गुज़रा था इधर से 'अम्बर'
जा-ए-हैरत कि सभी उस के असर में हैं अभी
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जाने क्या बरसा था रात चराग़ों से
जाने क्या सोच के फिर इन को रिहाई दे दी
धनक
रोज़ हम जलती हुई रेत पे चलते ही न थे
आम के पेड़ों के सारे फल सुनहरे हो गए
चेहरों पे ज़र-पोश अंधेरे फैले हैं
अब क़बीले की रिवायत है बिखरने वाली
हर इक नदी से कड़ी प्यास ले के वो गुज़रा
हर तरफ़ उस के सुनहरे लफ़्ज़ हैं फैले हुए
दरवाज़ा वा कर के रोज़ निकलता था
मुझे ख़बर है मुझे यक़ीं है
एक सन्नाटा बिछा है इस जहाँ में हर तरफ़