हर इक नदी से कड़ी प्यास ले के वो गुज़रा
ये और बात कि वो ख़ुद भी एक दरिया था
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गुलाब था न कँवल फिर बदन वो कैसा था
हर लम्हा सैराबी की अर्ज़ानी है
गीली मिट्टी हाथ में ले कर बैठा हूँ
चेहरों पे ज़र-पोश अंधेरे फैले हैं
मैं अपनी वुसअतों को उस गली में भूल जाता हूँ
गर्दिश का इक लम्हा यूँ बेबाक हुआ
जाने क्या बरसा था रात चराग़ों से
वो लम्हा मुझ को शश्दर कर गया था
उस ने हर ज़र्रे को तिलिस्म-आबाद किया
दरवाज़ा वा कर के रोज़ निकलता था
अब क़बीले की रिवायत है बिखरने वाली