हर फूल पे उस शख़्स को पत्थर थे चलाने
अश्कों से हर इक बर्ग को भरना था हमें भी
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हँसते हुए चेहरे में कोई शाम छुपी थी
हर इक नदी से कड़ी प्यास ले के वो गुज़रा
ये सच है रंग बदलता था वो हर इक लम्हा
एक रियाज़त ये भी
चेहरों पे ज़र-पोश अंधेरे फैले हैं
एक सन्नाटा बिछा है इस जहाँ में हर तरफ़
इक शफ़्फ़ाफ़ तबीअत वाला सहराई
रोज़ हम जलती हुई रेत पे चलते ही न थे
गुलाबी चोंच
मेरा कर्ब मिरी तन्हाई की ज़ीनत
जाने क्या सोच के फिर इन को रिहाई दे दी