हम पी भी गए और सलामत भी हैं 'अम्बर'
पानी की हर इक बूँद में हीरे की कनी थी
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मिरे चेहरे पे जो आँसू गिरा था
आज फिर धूप की शिद्दत ने बड़ा काम किया
हर इक नदी से कड़ी प्यास ले के वो गुज़रा
गुलाब था न कँवल फिर बदन वो कैसा था
हर तरफ़ उस के सुनहरे लफ़्ज़ हैं फैले हुए
क्यूँ न हों शाद कि हम राहगुज़र में हैं अभी
रोज़ हम जलती हुई रेत पे चलते ही न थे
चेहरों पे ज़र-पोश अंधेरे फैले हैं
सूप के दाने कबूतर चुग रहा था और वो
जाने क्या बरसा था रात चराग़ों से
जाने क्या सोच के फिर इन को रिहाई दे दी
आम के पेड़ों के सारे फल सुनहरे हो गए