जान देने का हुनर हर शख़्स को आता नहीं
सोहनी के हाथ में कच्चा घड़ा था देखते
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मेरा कर्ब मिरी तन्हाई की ज़ीनत
दरवाज़ा वा कर के रोज़ निकलता था
रोज़ हम जलती हुई रेत पे चलते ही न थे
गुलाबी चोंच
सूखी टहनी पर हरियल
हर लम्हा सैराबी की अर्ज़ानी है
बाहर सारे मैदाँ जीत चुका था वो
मैं अपनी वुसअतों को उस गली में भूल जाता हूँ
शब ख़्वाब के जज़ीरों में हँस कर गुज़र गई
क्यूँ न हों शाद कि हम राहगुज़र में हैं अभी
अब क़बीले की रिवायत है बिखरने वाली
युधिष्ठिर