बे-कैफ़ हैं दिन-रात कहूँ तो किस से
ये सूरत-ए-हालात कहूँ तो किस से
दुनिया में कोई मूनिस-ओ-ग़म-ख़्वार नहीं
मैं दिल की अगर बात कहूँ तो किस से
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होंटों से लगाता है कोई जाम कहाँ
मत कहियो ज़बाँ है ये मुसलामानों की
इल्ज़ाम लगाया है तो साबित भी करो
अफ़्सोस कि जिस दिन से हम आज़ाद हुए
इक जहल के सैलाब में जो बहते हैं
क्या तुम ने मिरा हाल-ए-ज़बूँ देखा है
बेकस की कोई किस लिए इमदाद करे
इस दहर में अब किस पे भरोसा कीजे
इक वो हैं कि इंकार किए जाते हैं
क्यूँ उन को सताने में मज़ा आता है