होंटों से लगाता है कोई जाम कहाँ
अब वज्द में आते हैं दर-ओ-बाम कहाँ
दिन-रात गुलू-गीर हो जब फ़िक्र-ए-मआश
फिर इश्क़ का लेता कोई नाम कहाँ
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मत कहियो ज़बाँ है ये मुसलामानों की
अफ़्सोस कि जिस दिन से हम आज़ाद हुए
बे-कैफ़ हैं दिन-रात कहूँ तो किस से
क्या तुम ने मिरा हाल-ए-ज़बूँ देखा है
बेकस की कोई किस लिए इमदाद करे
इल्ज़ाम लगाया है तो साबित भी करो
इस दहर में अब किस पे भरोसा कीजे
इक वो हैं कि इंकार किए जाते हैं
इक जहल के सैलाब में जो बहते हैं
क्यूँ उन को सताने में मज़ा आता है