यकुम जनवरी है नया साल है
दिसम्बर में पूछूँगा क्या हाल है
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वक़्त के साथ बदलना तो बहुत आसाँ था
पाईं हर एक राह-गुज़र पर उदासियाँ
वो सर-फिरी हवा थी सँभलना पड़ा मुझे
क़त्ल हो तो मेरा सा मौत हो तो मेरी सी
न पूछ मंज़र-ए-शाम-ओ-सहर पे क्या गुज़री
मुझ से बच बच के चली है दुनिया
हर एक हाथ में पत्थर दिखाई देता है
बंद आँखों से वो मंज़र देखूँ
जाने ये किस की बनाई हुई तस्वीरें हैं
नदी के पार उजाला दिखाई देता है
आज की रात भी गुज़री है मिरी कल की तरह
उन की बे-रुख़ी में भी इल्तिफ़ात शामिल है