गर यही है पास-ए-आदाब-ए-सुकूत
किस तरह फ़रियाद लब तक आएगी
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शमीम-ए-यार न जब तक चमन में छू आए
क्यूँ ख़राबात में लाफ़-ए-हमा-दानी वाइ'ज़
नासेह ख़ता मुआफ़ सुनें क्या बहार में
दिल धड़कता है शब-ए-ग़म में कहीं ऐसा न हो
इक आफ़त-ए-जाँ है जो मुदावा मिरे दिल का
ज़माने से निराला है उरूस-ए-फ़िक्र का जौबन
कीजिए ऐसा जहाँ पैदा जहाँ कोई न हो
गर यही है आदत-ए-तकरार हँसते बोलते
ख़ाली सही बला से तसल्ली तो दिल को हो
अहद के बअ'द लिए बोसे दहन के इतने
ग़ैब से सहरा-नवरदों का मुदावा हो गया
तड़पती देखता हूँ जब कोई शय