तड़पती देखता हूँ जब कोई शय
उठा लेता हूँ अपना दिल समझ कर
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दास्तान-ए-शौक़-ए-दिल ऐसी नहीं थी मुख़्तसर
कल मिरा था आज वो बुत ग़ैर का होने लगा
सुब्ह होती है शाम होती है
कहने सुनने से मिरी उन की अदावत हो गई
कीजिए ऐसा जहाँ पैदा जहाँ कोई न हो
चारासाज़-ए-ज़ख़्म-ए-दिल वक़्त-ए-रफ़ू रोने लगा
चाहता हूँ पहले ख़ुद-बीनी से मौत आए मुझे
ग़ैब से सहरा-नवरदों का मुदावा हो गया
बस कि थी रोने की आदत वस्ल में भी यार से
नासेह ख़ता मुआफ़ सुनें क्या बहार में
गर यही है पास-ए-आदाब-ए-सुकूत
गर यही है आदत-ए-तकरार हँसते बोलते