सुब्ह होती है शाम होती है
उम्र यूँही तमाम होती है
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कीजिए ऐसा जहाँ पैदा जहाँ कोई न हो
क्यूँ ख़राबात में लाफ़-ए-हमा-दानी वाइ'ज़
चाहता हूँ पहले ख़ुद-बीनी से मौत आए मुझे
पारसाई उन की जब याद आएगी
करो न देर जहाँ में जहाँ से आगे चलो
अहद के बअ'द लिए बोसे दहन के इतने
भूले से भी न जानिब-ए-अग़्यार देखना
नासेह ख़ता मुआफ़ सुनें क्या बहार में
वस्ल की शब भी अदा-ए-रस्म-ए-हिरमाँ में रहा
इक आफ़त-ए-जाँ है जो मुदावा मिरे दिल का
ज़माने से निराला है उरूस-ए-फ़िक्र का जौबन
थक गए तुम हसरत-ए-ज़ौक़-ए-शहादत कम नहीं