आती जाती हुई तन्हाई को पहचानता हूँ
घर के दरवाज़े पे बैठा हूँ सधाया हुआ मैं
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अच्छे मौसम में तग-ओ-ताज़ भी कर लेता हूँ
दर्द से भरता रहा ज़ात के ख़ाली-पन को
इस से आगे तो बस ला-मकाँ रह गया
किसी तरह से नज़र मुतमइन नहीं होती
ख़्वाब शर्मिंदा-ए-विसाल हुआ
काग़ज़ था मैं दिए पे मुझे रख दिया गया
तख़्लीक़ की साअतों में
इन दिनों ख़ुद से फ़राग़त ही फ़राग़त है मुझे
गिर्या
मुझे भी सहनी पड़ेगी मुख़ालिफ़त अपनी
जब ख़ुदा भी नहीं था साथ मरे