किसी तरह से नज़र मुतमइन नहीं होती
हर एक शय को दोबारा बदल के देखता हूँ
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ख़्वाब शर्मिंदा-ए-विसाल हुआ
जस्त भरता हुआ फ़र्दा के दहाने की तरफ़
दर्द-ए-विरासत पा लेने से नाम नहीं चल सकता
मैं आज ख़ुद से मुलाक़ात करने वाला हूँ
रात तिरे ख़्वाबों ने मुझ पर यूँ अर्ज़ानी की
मैं चीख़ता रहा कुछ और भी है मेरा इलाज
बुझने दे सब दिए मुझे तन्हाई चाहिए
ख़ुद तक मिरी रसाई नहीं हो रही अभी
तेरे अंदर की उदासी के मुशाबह हूँ मैं
उम्र की सारी थकन लाद के घर जाता हूँ
अपनी तस्दीक़ मुझे तेरी गवाही से हुई
मुहाजिर परिंदों का स्वागत