ख़ुद तक मिरी रसाई नहीं हो रही अभी
हैरत है उस तरफ़ भी नहीं हूँ जिधर मैं हूँ
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ये मोहब्बत का जो अम्बार पड़ा है मुझ में
किसी तरह से नज़र मुतमइन नहीं होती
अच्छे मौसम में तग-ओ-ताज़ भी कर लेता हूँ
पत्थर में कौन जोंक लगाएगा मेरे दोस्त
ठीक से याद भी नहीं अब तो
मुझ से ख़ाली है मेरा आईना
एक और मुुहब्बत....
दर्द-ए-विरासत पा लेने से नाम नहीं चल सकता
फ़लक-नज़ाद सही सर-निगूँ ज़मीं पे था मैं
इतना तरसाया गया मुझ को मोहब्बत से कि अब
उदासी खींच लाई है यहाँ तक
सरगोशी