ठीक से याद भी नहीं अब तो
इश्क़ ने मुझ में कब क़याम किया
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कुछ तो खिंची खिंची सी थी साअत विसाल की
खुली हुई है जो कोई आसान राह मुझ पर
चला हवस के जहानों की सैर करता हुआ
इक दूजे को देर से समझा देर से यारी की
पुर्सा
इन दिनों ख़ुद से फ़राग़त ही फ़राग़त है मुझे
किस शफ़क़त में गुँधे हुए मौला माँ बाप दिए
एक बे-नाम उदासी से भरा बैठा हूँ
एक दिन मेरी ख़ामुशी ने मुझे
मैं आज ख़ुद से मुलाक़ात करने वाला हूँ
तेरे अंदर की उदासी के मुशाबह हूँ मैं
बे-मसरफ़ रिश्तों की फ़राग़त