एक दिन मेरी ख़ामुशी ने मुझे
लफ़्ज़ की ओट से इशारा किया
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बुझने दे सब दिए मुझे तन्हाई चाहिए
हर तरफ़ तू नज़र आता है जिधर जाता हूँ
मैं सब का सब मोहब्बत के लिए हूँ
तुम अकेले में मिले ही नहीं वर्ना तुम को
आइंदगाँ की उदासी में
इतना तरसाया गया मुझ को मोहब्बत से कि अब
बरहम हैं मुझ पे इस लिए दोनों तरफ़ के लोग
मैं जब वजूद से होते हुए गुज़रता हूँ
वो इक दिन जाने किस को याद कर के
हम बे-वतन ख़्वाबों के जोलाहे हैं
दर्द-ए-विरासत पा लेने से नाम नहीं चल सकता
उठाए फिरता रहा मैं बहुत मोहब्बत को