बुझने दे सब दिए मुझे तन्हाई चाहिए
कुछ देर के लिए मुझे तन्हाई चाहिए
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एक दिन मेरी ख़ामुशी ने मुझे
हाँ ज़माने की नहीं अपनी तो सुन सकता था
हर तरफ़ तू नज़र आता है जिधर जाता हूँ
मैं और मेरी तन्हाई
आती जाती हुई तन्हाई को पहचानता हूँ
जब ख़ुदा भी नहीं था साथ मरे
दर्द-ए-विरासत पा लेने से नाम नहीं चल सकता
कैसी सोहबत है कैसी तन्हाई
ठीक से याद भी नहीं अब तो
हिज्र में भी हम एक दूसरे के
सरगोशी
हिसाब-ए-जाँ!!