हाँ ज़माने की नहीं अपनी तो सुन सकता था
काश ख़ुद को ही कभी बैठ के समझाता मैं
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साथ बारिश में लिए फिरते हो उस को 'अंजुम'
हिज्र को बीच में नहीं छोड़ा
ज़ुहूर-ए-कश्फ़-ओ-करामात में पड़ा हुआ हूँ
मैं जिस चराग़ से बैठा था लौ लगाए हुए
तेरे अंदर की उदासी के मुशाबह हूँ मैं
हिसाब-ए-जाँ!!
बुझने दे सब दिए मुझे तन्हाई चाहिए
एक महबूस नज़्म
किस शफ़क़त में गुँधे हुए मौला माँ बाप दिए
रात तिरे ख़्वाबों ने मुझ पर यूँ अर्ज़ानी की
उठाए फिरता रहा मैं बहुत मोहब्बत को
दीवार पे रक्खा तो सितारे से उठाया