हिज्र को बीच में नहीं छोड़ा
सब से पहले उसे तमाम किया
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मिट के आसूदा हो गया हूँ मैं
किस शफ़क़त में गुँधे हुए मौला माँ बाप दिए
सभी दरवाज़े खुले हैं मिरी तन्हाई के
जब ख़ुदा भी नहीं था साथ मरे
मुहाजिर परिंदों का स्वागत
ये मोहब्बत का जो अम्बार पड़ा है मुझ में
दीवार पे रक्खा तो सितारे से उठाया
सोला दिसम्बर
मैं चीख़ता रहा कुछ और भी है मेरा इलाज
उसे छूते हुए भी डर रहा था
हवा का तख़्त बिछाता हूँ रक़्स करता हूँ
बे-मसरफ़ रिश्तों की फ़राग़त