तू इल्म-ओ-हुनर से ख़ाइफ़ है
तू रौशनियों से डरता है
ओ अम्न के ग़ारत-गर दुश्मन
तू उस दिन से भी डर दुश्मन
जब तुझ को तेरे अपने ही
बच्चों का दुश्मन कर दूँगा
ता'लीम से रौशन कर दूँगा
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कल तो तिरे ख़्वाबों ने मुझ पर यूँ अर्ज़ानी की
मैं एक एक तमन्ना से पूछ बैठा हूँ
पुराना ज़हर नए नाम से मिला है मुझे
ज़ुहूर-ए-कश्फ़-ओ-करामात में पड़ा हुआ हूँ
हर तरफ़ तू नज़र आता है जिधर जाता हूँ
हिज्र में भी हम एक दूसरे के
चला हवस के जहानों की सैर करता हुआ
उठाए फिरता रहा मैं बहुत मोहब्बत को
माज़रत रौंदे हुए फूलों से कर लूँ तो चलूँ
किस शफ़क़त में गुँधे हुए मौला माँ बाप दिए
किसी तरह से मैं टल जाऊँ अपनी मर्ज़ी से
खुली हुई है जो कोई आसान राह मुझ पर