किस शफ़क़त में गुँधे हुए मौला माँ बाप दिए
कैसी प्यारी रूहों को मेरी औलाद किया
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टूटे हुए प्याले
ये भी आग़ाज़-ए-मोहब्बत में बहुत है मुझ को
एक क़दीम ख़याली की निगरानी में
एक ताबीर की सूरत नज़र आई है इधर
हिज्र को बीच में नहीं छोड़ा
किस ज़माने में मुझ को भेज दिया
मिट के आसूदा हो गया हूँ मैं
हिज्र में भी हम एक दूसरे के
मैं एक एक तमन्ना से पूछ बैठा हूँ
सरगोशी
इंहिराफ़
जब ख़ुदा भी नहीं था साथ मरे