दर्द से भरता रहा ज़ात के ख़ाली-पन को
थोड़ा थोड़ा यूँही भरपूर किया मैं ने मुझे
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उठाए फिरता रहा मैं बहुत मोहब्बत को
गिर्या
मैं ख़ुद से मिल के कभी साफ़ साफ़ कह दूँगा
आगे बिछी पड़ी रहीं उस के बदन की नेमतें
ख़ाक छानी न किसी दश्त में वहशत की है
एक साकित रात का अज़ाब
ये मोहब्बत का जो अम्बार पड़ा है मुझ में
मैं चीख़ता रहा कुछ और भी है मेरा इलाज
चराग़ हाथ में हो तो हवा मुसीबत है
पत्थर में कौन जोंक लगाएगा मेरे दोस्त
एक महबूस नज़्म
रात तिरे ख़्वाबों ने मुझ पर यूँ अर्ज़ानी की