अध-बुने ख़्वाबों का अम्बार पड़ा है दिल में
आँख वालों के लिए है ये अमानत मेरी
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कहने सुनने के लिए और बचा ही क्या है
माँ की दुआ न बाप की शफ़क़त का साया है
सख़्त मुश्किल में किया हिज्र ने आसान मुझे
हम बे-वतन ख़्वाबों के जोलाहे हैं
एक साकित रात का अज़ाब
बुझने दे सब दिए मुझे तन्हाई चाहिए
जस्त भरता हुआ फ़र्दा के दहाने की तरफ़
मैं जिस चराग़ से बैठा था लौ लगाए हुए
माज़रत रौंदे हुए फूलों से कर लूँ तो चलूँ
हिज्र में भी हम एक दूसरे के
एक दिन मेरी ख़ामुशी ने मुझे
खींचा हुआ है गर्दिश-ए-अफ़्लाक ने मुझे