जस्त भरता हुआ फ़र्दा के दहाने की तरफ़
जा निकलता हूँ किसी गुज़रे ज़माने की तरफ़
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मैं जिस चराग़ से बैठा था लौ लगाए हुए
इन दिनों ख़ुद से फ़राग़त ही फ़राग़त है मुझे
पुर्सा
ख़्वाब शर्मिंदा-ए-विसाल हुआ
हिसाब-ए-जाँ!!
उस ख़ुदा की तलाश है 'अंजुम'
हर तरफ़ तू नज़र आता है जिधर जाता हूँ
बुझने दे सब दिए मुझे तन्हाई चाहिए
इस से आगे तो बस ला-मकाँ रह गया
कल तो तिरे ख़्वाबों ने मुझ पर यूँ अर्ज़ानी की
खुली हुई है जो कोई आसान राह मुझ पर
दोस्तो मेरे लिए कोई भी अफ़्सुर्दा न हो