रोज़ उठ जाती है घर में कोई दीवार नई
इस तरह तंग हुआ जाता है आँगन अपना
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हम से वफ़ा-शिआर को भी तेरे रू-ब-रू
हुस्न ऐसा कि ज़माने में नहीं जिस की मिसाल
दामन पे तो हर एक के छीटें हैं ख़ून की
रात का क्या ज़िक्र है शाम-ओ-सहर आया नहीं
आए हैं समझाने लोग
तुम्हारे दिल में कोई और भी है मेरे सिवा
सच ये है हम ही मोहब्बत का सबक़ पढ़ न सके
शहर की गलियों और सड़कों पर फिरते हैं मायूसी में
है तक़ाज़ा-ए-तहज़ीब 'अनवर'
दर्द-ए-दिल की दवा है माह-ए-नौ
चढ़ते तूफ़ान को साहिल से गुज़रना था मियाँ