है तक़ाज़ा-ए-तहज़ीब 'अनवर'
मत कहो वो कि जो मुँह में आए
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दर्द-ए-दिल की दवा है माह-ए-नौ
सच ये है हम ही मोहब्बत का सबक़ पढ़ न सके
बहुत आसान है मुश्तरका दिलों में तफ़रीक़
हम फ़ितरतन इंसाँ हैं फ़रिश्ते तो नहीं हैं
आए हैं समझाने लोग
तुम्हारे दिल में कोई और भी है मेरे सिवा
ज़माना उफ़ ये कैसा हो रहा है
हुस्न ऐसा कि ज़माने में नहीं जिस की मिसाल
कैसा मक़ाम आया मोहब्बत की राह में
चढ़ते तूफ़ान को साहिल से गुज़रना था मियाँ
बे-घर था फिर छोड़ गया घर जाने क्यूँ
दामन पे तो हर एक के छीटें हैं ख़ून की