हम फ़ितरतन इंसाँ हैं फ़रिश्ते तो नहीं हैं
दावा ये करें कैसे कि लग़्ज़िश नहीं करते
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रात का क्या ज़िक्र है शाम-ओ-सहर आया नहीं
ज़िंदगी अपनी ख़्वाब जैसी है
कैसा मक़ाम आया मोहब्बत की राह में
हुस्न ऐसा कि ज़माने में नहीं जिस की मिसाल
दर्द-ए-दिल की दवा है माह-ए-नौ
दामन पे तो हर एक के छीटें हैं ख़ून की
है तक़ाज़ा-ए-तहज़ीब 'अनवर'
हम से वफ़ा-शिआर को भी तेरे रू-ब-रू
तुम्हारे दिल में कोई और भी है मेरे सिवा
सच ये है हम ही मोहब्बत का सबक़ पढ़ न सके
रोज़ उठ जाती है घर में कोई दीवार नई